हिन्दी-उर्दू मजलिस का मुखपत्र

जून माह के अंत तक प्राप्त चयनित रचनाएं पत्रिका 'परिधि' में प्रकाशित की जाती हैं. लेखक को एक लेखकीय प्रति नि:शुल्क प्रेषित की जाती है.
मंगल फॉण्ट में टाइप रचनाएं (चयनित) ब्लॉग पर भी प्रकाशित होंगी. ब्लॉग पर प्रकाशनार्थ रचना कभी भी भेजी जा सकती है
paridhi.majlis@gmail.com

Thursday, August 18, 2011

रचना-पाठ गोष्ठी १७/०८/२०११

 सागर- नगर की साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्था हिंदी उर्दू मजलिस की 300 वीं रचना-पाठ गोष्ठी संस्था के बड़ा बाज़ार स्थित कार्यालय में १७/०८/२०११ दिन बुधवार को  संपन्न हुई / गोष्ठी की अध्यक्षता श्रीमान सेठ मोतीलाल जी जैन ने की एवं संचालन श्रीमान रिषभ समैया 'जलज'ने किया/
             श्रीमती निरंजना जैन ने 'नटनी' कहानी के वाचन के पूर्व अन्ना हजारे के आन्दोलन को अपनी  सहमती जताते हुए रचना पढी-  'अन्ना हजारे ने / दिखला दिया ज़माने को/ कम मत आँको / आदमी के / आत्मविश्वास , लगन ,ईमानदारी ,सेवा और समर्पण को'
              डा० अनिल जैन'अनिल' ने ग़ज़ल का शेर पढ़ते हुए कहा- करें अब यकीं हम यहाँ किस पे यारो  / जिसे ताज सौंपो वही लूटता है// हैं दोनों ही हाथों में लड्डू किसी के/ यहाँ जिसको पकड़ो वही छूटता है //
               विक्रांत जैन एडव्होकेट ने अन्ना हजारे को समर्पित दो आलेख 'अन्ना की लोकशाही- सरकार का अलोकतंत्र' एवं 'लोकपाल पर महाभारत' का वाचन किया .
               रिषभ समैया 'जलज' ने रचना-पाठ करते हुए कहा- पावक को हम पानी कैसे कह देते/ ज्वाला को बर्फानी कैसे कह् देते.  
               वरिष्ठ  कवि निर्मल चाँद 'निर्मल' ने दोहा पढ़ते हुए कहा - सत्य अहिंसा शब्द को, छलता है व्यवहार / टकसाली अब हो गए, पग-पग लोकाचार//
               विनोद अनुरागी ने रचना पढी- रोटियां गरीब की, छीन कर कागा उड़ा / देखते सब रह गए , आँख पर चश्मा चढ़ा //
                गोष्ठी के अध्यक्षता कर रहे सेठ मोतीलाल जी दाऊ ने सभी साहित्यकारों को उनकी उत्कृष्ट रचनाओं के लिए साधुवाद दिया
                 श्री लक्ष्मीचंद जैन एडव्होकेट ने सभी के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित की
                  अंत में रचना कर्मी श्रीमती राजमती दिवाकर और श्रीमान पुरषोत्तम सरवैया 'पारस' के आकस्मिक निधन पर दो मिनिट का मौन रखकर श्रृद्धांजलि अर्पित   की गई /  
              
 


  

Tuesday, July 19, 2011

वृन्दावन राय 'सरल'

हमारे ज़र्फ़ का ये इम्तेहान होना है
ज़मीं के साथ हमें आसमान होना है
खुदा ने जो भी दिया उसका  एहतराम करो
अगर सुकून से हर रात तुम को सोना है
वफ़ा, ख़ुलूस से पहले करो ज़मीं ताज़ा
अगर चमन में जो अम्नो अमान बोना है 
सभी हैं शाख के पत्ते यहाँ हरे-पीले
समय के साथ हवाओं में जिनको खोना है
तमाम ज़ख़्म जो बख्शे हैं हमको दुनिया ने
हमें ये दाग़ फ़क़त आँसुओं से धोना है
दह्र से नाम अँधेरे का मिटाने को 'सरल'
हमें चिराग़ नहीं, आफ़ताब होना है  

वृन्दावन राय 'सरल'


क्यों रहें निर्भर किसी ज़रदार पर
सर  झुकाएं क्यों किसी के द्वार पर
चाँद पर अब घर बनाए आदमी
फूल सहरा में खिलाये आदमी
कर यकीं अपने हुनर की धार पर
सर झुकाएं...........
मंज़िलों के पा सकें न वो निशाँ
जो चलें बैसाखियाँ लेकर यहाँ
मत बना छत रेत की दीवार पर
सर झुकाएं......
खो गई  इंसान की इंसानियत
हो गई बारूद जैसी ज़हनियत
जी रही दुनिया खड़ी तलवार पर
सर झुकाएं...........
कौन किसका है सगा इस दौर में
दे रहे अपने दग़ा इस दौर में
धूल छल की चढ़ गई व्यवहार पर
सर झुकाएं......
(परिधि-1)




रचना पाठ गोष्ठी दिनांक १७/०७/२०११

सागर- नगर की साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्था 'हिंदी- उर्दू मजलिस' की २९८ वीं रचना पाठ गोष्ठी दिनांक १७/०७/२०११ को संस्था  के बड़ा बाज़ार स्थित कार्यालय में संपन्न हुई. गोष्ठी की अध्यक्षता श्रीमान लक्ष्मी चन्द जैन ने की तथा संचालन श्री विनोद अनुरागी ने किया.
विनोद 'अनुरागी' ने रचना पढ़ी- ढोल बजेंगे,उठेगी मिट्टी, हाहाकार मचेगा घर में/ बंटवारा भी घर में होगा, भूल जायेंगे सब कुछ पल में//
वृन्दावन 'सरल' ने  दोहा  पढ़ते हुए कहा- पानी-पानी हो गया, उस बस्ती में आज/ बूँद-बूँद जल के लिए, कल था जो मुहताज//
डा० अनिल जैन 'अनिल' ने गीत पढ़ते हुए कहा- सांसों के तारों की धुन पर, जीवन गीत सुनाता हूँ/ मृत्यु का आलिंगन करने, पल-पल बढ़ता जाता हूँ//
श्रीमती निरंजना जैन ने रचना पढ़ी- जीवन की बगिया को हमने खिलते और उजड़ते  देखा/ सपनों के महलों को हमने टूट-टूट कर गिरते देखा//
वरिष्ठ कवि श्री निर्मल चन्द 'निर्मल' ने रचना पढ़ते हुए कहा- लाख तू कंकर-पत्थर जोड़/गिरेगी  मिट्टी की दीवार/है परीक्षण तेरे अविनय का/ सपनों में सपने देखता क्यों//
श्री सुभाष दिवाकर एडव्होकेट   ने कहा की इस गोष्ठी में कविता का स्तर बहुत ही उच्च है. ये रचनाएं प्रकाशन होने की मांग रखती हैं.
श्रीमान मोतीलाल जैन'दाऊ जी' ने कहा - 'संस्था के उपाध्यक्ष डा० अनिल जैन  की भाभी  श्री मुन्नी देवी जैन  का  कम उम्र में निधन हो जाने से आज मन द्रवित है . इसके बावजूद आज की गोष्ठी भावपूर्ण कविताओं के साथ संपन्न हुई. जीवन की सहजता, सरसता, नीरसता, सजगता को समर्पित आज की रचनाएं मन को विह्वल कर गईं .
गोष्ठी की अध्यक्षता कर रहे श्री लक्ष्मी चन्द जैन  एडव्होकेट ने कहा आज की रचनाएं उत्कृष्ट शैली की थीं.
गोष्ठी के अंत में श्रीमती मुन्नी देवी जैन को दो मिनिट मौन रख  कर श्रृद्धांजलि अर्पित की गई.
                                                                                                              सचिव- निरंजना जैन 
  

Sunday, July 3, 2011

दिनांक ०१/जुलाई २०११


सागर- नगर की साहित्यिक संस्था 'हिंदी- उर्दू मजलिस' की 297 वीं गोष्ठी संस्था के बड़ा बाज़ार स्थित कार्यालय में संपन्न हुई . गोष्ठी की अध्यक्षता श्री लक्ष्मी चन्द जैन ने की एवं सञ्चालन श्री पूरन सिह राजपूत ने किया.

राम आसरे पाण्डे ने रचना पाठ करते हुए कहा- वो हमको रौशनी देगा, बताओ मानलें कैसे? की जिसको देखने के वास्ते दीपक जलाना है //
पूरन सिंह राजपूत ने शेर पढ़ा- कह दिया तो मान जाओगे बुरा/ तुम हमारा मुंह न खुलवाया करो//
डॉ0 अनिल जैन ने ग़ज़ल का मतला पढ़ते हुए कहा- सुब्ह को चलती हवा की ताज़गी हैं लडकियाँ / चहचहाती बुलबुलों के गीत सी है लडकियाँ//
ऋषभ समैया 'जलज' ने रचना पढी- अपनेपन की हवा रौशनी, अंगनाई सा घर/ पूँछ , परख, थिरकन रिश्तों की पहुनाई सा घर //
श्री मोती लाल जैन ने प्रकाश काम्बले की कविता 'घर मात्र दीवारों से नहीं बनते' का पाठ किया .

Wednesday, June 22, 2011

गोविन्द दास नगरिया


तुम्हारी याद तब आती 

घुमड़ते मेघ जब नभ में 
धरा पर बरस जाने को 
चमकती दामिनी सुन्दर 
मेघ का मन लुभाने को 
उसी क्षण बूँद को पीने 
पपीही बोल जब जाती 
तुम्हारी याद तब आती 

उतर कर चांदनी भू पर 
छबीला नृत्य जब करती 
विकल हो कर दीवानी सी
चन्द्र को अंक में  भरती 
उसी क्षण गुदगुदाती जब 
पवन हर फूल औ' पाती 
तुम्हारी याद तब आती 

बसंत के आगमन पर जब 
प्रकृती श्रृंगार  कर उठती 
खिली हर-हर कली में तब 
मिलन की साध भर उठती 
उसी क्षण आम्र तरु पर जब 
कुयलिया गीत नव गाती 
तुम्हारी याद तब आती 
(गोविन्द दास नगरिया परिधि-६ )
 

नेमिचंद्र जैन 'विनम्र'


आत्म निरीक्षण 
हे  सम्मान चाहने वालो,पहले तुम खुद झुकना सीखो 
'भाषण-काव्य' सुनाने वालो, कृपया पहले सुनना सीखो 
औरो पर जो तुम हँसते हो, अपने पर भी हँसना सीखो  
करते हो जो व्यंग्य अन्य पर, अपनी त्रुटियाँ गिनना सीखो 
राह बताते जो लोगों को, उनको पहले खुद चलना है 
देते जो उपदेश हमेशा, नहीं पालना , खुद छलना है 
आंसू जो टपकें सच्चे हों, नहीं दिखावट उनमें होवे 
नाम मित्रता हो न कलंकित, नहीं गिरावट उसमें होवे 
मुस्कानें भी आत्मीय हों, संवेदन भी सत्य लिए हों 
सारे ही आचरण हमारे, जनहित का ही तथ्य लिए हों 
(नेमिचंद्र जैन 'विनम्र' परिधि-6)
 

Saturday, June 18, 2011

निर्मल चन्द 'निर्मल'


कैसे कह दें अपना देश महान 

तुम्ही बताओ कैसे कह दें अपना देश महान 
अनुशासन की कर दी छुट्टी राजनीति मतवाली 
मुख पर आदर्शों की झांकी मन मदिरा की प्याली 
सादे-कर्मठ जीवन पर है गिद्धों की रखवाली 
चुन -चुन किनको खा जायेंगे इनकी भूख निराली 
गांधी जी व  इंदिरा जी का कर बैठे जलपान 
तुम्ही बताओ---------
दूर कहाँ नज़रें ले जाएँ इनको  अपनी चिंता
जय-जय कार करा लेते हैं शोहरत के अभियंता 
कानूनों से ऊपर समझो कानूनों के हन्ता 
स्वागत करने को किराए की भूखी-प्यासी जनता 
तिकड़म का विधान रचते हैं करवाने गुणगान 
तुम्ही बताओ........... 
 बलशाली नेतृत्व खौफ़ से डरती है आबादी 
जिसकी लाठी भैंस उसी की कैसी ये आज़ादी 
लूटो, मारो,मौज उड़ाओ, कहते अवसरवादी 
क्या चरित्र माँ के बेटों का देख रही बर्बादी 
खुला हाट रिश्वत खोरी का , बिकता है ईमान 
तुम्ही बताओ ........
राजनीति न्यायालय पहुंचे न्यायतंत्र धमकाने 
न्यायपालिका भी शंकित है संशय हैं मनमाने 
आतंकित कर रहीं हवाएं, दहशतगर्द ज़माने 
तेरी-मेरी गिनती क्या है अल्लाताला जाने 
क्या भविष्य है लोकतंत्र का, क्या इसका सम्मान 
तुम्ही बताओ..........
देशी उद्योगों से इनका कितना रहा लगाव 
जगह- जगह स्थापित दीखते परदेसी फैलाव 
ढाल तर्क से कर लेते हैं अपना सतत बचाव 
करनी इनकी भोग रहे हम, घर-घर में टकराव 
साम, दाम व  दंड शिरोमणि, है इनकी पहचान 
तुम्ही बताओ..........  
                        परिधि-6 )
 
 

गोष्ठी- १७ जून २०११


सागर- नगर की साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्था हिन्दी-उर्दू मजलिस की २९६ वीं गोष्ठी संस्था के बड़ा बाज़ार स्थित कार्यालय में दिनांक १७ जून २०११ को  सम्पन्न हुई | इस बहुआयामी गोष्ठी की अध्यक्षता वरिष्ट कवि श्री निर्मल चंद निर्मल ने की एवं संचालन श्री डॉ अनिल जैन अनिल ने किया .
गोष्ठी की शुरूआत करते हुए क्रान्ति  जबलपुरी ने गज़ल का शेर पढ़ा-मेरे माँ- बाप ने मेरी लहद पर फूल बरसाए / वतन के नाम जब लड़कर शहादत मिल गई मुझको //
डॉ.अनिल जैन अनिल ने हम भ्रष्टन केव्यंग्य रचना  पढते हुए कहा- भ्रष्टाचार/ हमें स्वीकार्य है / सदियों से स्वीकार्य है / जो जितना बड़ा भ्रष्टाचारी / वह / उतने बड़े सम्मान का अधिकारी
राम आसरे पाण्डे  ने रचना पाठ  करते हुए कहाअभी सुनते जाओ, कथा और भी है/ पढ़ा है अभी, लिखा और भी है.
श्रीमती निरंजना जैन ने चट्टान, मेला एवं सत्य-सूली रचना का पाठ करते हुए कहा- सत्य सूली पर टंगा है और हम बौने हुए हैं/ झूठ के जंगल घने हैं और हम छौने हुए हैं/ बंद हैं सब द्वार घर के, बंद हैं सब खिड़कियाँ/ रौशनी आये कहाँ से, हम तो बस कोने हुए हैं //
विनोद जैन अनुरागी ने रचना पढ़ी- लिखो क्षमा की आज इबारत, गाओ कंठ से मीठे गीत/ मन का तमस हटालो पूरा, बन जाएँ सब अपने मीत//
गोष्ठी की अध्यक्षता कर रहे वरिष्ट कवि निर्मल चंद निर्मल ने रचना पढ़ी जो दिखी तस्वीर हमने देख ली/ आपकी तदबीर हमने देख ली/ है अचल बनकर विदेशों में पड़ी./ देश की जागीर हमने देख ली//

Friday, June 17, 2011

प्रमोद भट्ट 'नीलांचल'

तमन्नाओं   की  शिद्दत  कब  नहीं थी 
हमें  तुमसे   मुहब्बत   कब   नहीं  थी 
हसीं  फूलों  की  रंगत  कब   नहीं  थी 
मेरी  दुनिया  में  शोहरत कब नहीं थी 
सदा   अन्जान    सैय्यारों   से    देती 
फरिश्तों   सी  वो  सूरत  कब नहीं थी 
अभी आये हो तुम गुलशन में, लेकिन 
बहारों   की   ज़रुरत   कब   नहीं   थी 
जुबां  पर दिल से  आ  न पाई लेकिन 
तुम्हें  पाने  की  हसरत  कब नहीं थी 
वफ़ा   की   रौशनी   से    जगमगाती 
मुहब्बत  की  इमारत  कब  नहीं  थी 
गरीबों  की  सिसकती   बस्तियों  में 
अमीरों   की  हुकूमत  कब  नहीं  थी 
करे  परवाह  कब  तक  कोई  मजनू 
ज़माने  को  शिकायत  कब नहीं थी 
नगर  से  मौत  के  दावत तो  आती 
मेरे  क़दमों  में ताक़त  कब नहीं थी 
                                                प्रमोद भट्ट 'नीलांचल' 
..(परिधि-5)

Thursday, June 2, 2011

रचना पाठ गोष्ठी १ जून २०११

 सागर- नगर की साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्था हिन्दी-उर्दू मजलिस की 295 वीं गोष्ठी संस्था के बड़ा बाज़ार स्थित कार्यालय में दिनांक ०१ जून २०११ को  सम्पन्न हुई. इस बहुआयामी गोष्ठी की अध्यक्षता श्री सेठ मोतीलाल जी जैन ने की एवं संचालन श्री ऋषभ समैया जलज ने किया .

      गोष्ठी की शुरुआत करते हुए क्रान्ति जबलपुरी ने ग़ज़ल का शेर पढ़ा - 
तेरी नज़रें, तेरा अंदाज़, वो अहसास संदल सा / मैं देखूं ख्वाब जो तेरा, मेरा बिस्तर महकता है//
      डॉ.अनिल जैन अनिल ने गज़ल पढते हुए कहा
हुआ क्या है हाथों की तासीर को / ये उठते नहीं हैं दुआ के लिए //
      राम आसरे पाण्डे  ने रचना पाठ  करते हुए कहा
अपना घर मुझको बेगाना लगता है/गाँव मेरा मुझको अनजाना लगता है.//
      श्रीमती निरंजना जैन ने व्यंग्य रचनाओं के पाठ के पूर्व दोहा पढते हुए कहा
पगलाया मौसम हुआ,छिन-छिन बदले रूप/ कहीं चमकतीं  बिजलियाँ, कहीं कडकती धूप//
      संचालन कर रहे ऋषभ समैया जलज ने कहा- 
माँ जो रूठ जायेगी, फिर उसे मना लेंगे/और उसे मनाने में देर कितनी लगती है//
      वरिष्ट कवि निर्मल चंद निर्मल ने दोहा पढ़ा- 
उम्र चली आकाश को, धरती पकड़े पैर/ ऐसे में बोलो कहाँ निर्मल अपनी खैर//
      गोष्ठी की अध्यक्षता कर रहे श्रीमान सेठ मोतीलाल जी जैन ने कहा कि मैं आज की गोष्ठी में पधारे सभी कवियों से अभिभूत होकर जा रहा हूँ.
देर रात तक चली इस गोष्ठी में श्री  नेमीचन्द्र जैन विनम्र, विनोद अनुरागी, अक्षय जैन ने अपनी रचनाओं का वाचन किया. सुधी श्रोताओं में श्री योगेश चंद्र दीवानी, श्रीमती संध्या ,श्रीमती मधु जैन, आस्था जैन एवं सुभाष दिवाकर उपस्थित थे .

Saturday, April 2, 2011

रचना पाठ गोष्ठी १/अप्रैल/2011


सागर- नगर कि साहित्यिक एवं सास्कृतिक संस्था हिंदी-उर्दू मजलिस की २९१ वीं रचना पाठ गोष्ठी संस्था के बड़ा बाज़ार सागर स्थित कार्यालय में संपन्न हुई. इस गोष्ठी की अध्यक्षता विदिशा से पधारे वरिष्ठ साहित्यकार श्री जगदीश श्रीवास्तव जी ने तथा सञ्चालन श्री रिषभ समैया जी जलज ने किया.
      गोष्ठी की सुखद शुरूआत करते हुए श्री सत्य नारायण तिवारी ने रचना पाठ  करते हुए कहा-
अप्रेल का प्रथम दिवस है मुस्कुराइए . फूलों के साथ फूल बन हंसी लुटाइए  .
       डा.अनिल जैन अनिल ने मधुर स्वरों में  गज़ल पढते हुए कहा
आँखें नम कर जाये जाने कौन खबर. पढने से अखबार मुझे डर  लगता है.
कितना काम किया है फिर भी शेष रहा.तेज समय की धार मुझे डर लगता है.
        श्रीमती निरंजना जैन ने अपनी व्यंग्य कविता घूंस एवं घूँसा का वाचन करते हुए कहा
घूंस और घूंसे में / सिर्फ एक डंडे का ही अंतर होता है/ जो घूंस खाने वाला/ अनजाने में हीघूंसे खाने वाले के/ हाथ में थमा देता है.
         वृन्दावन राय सरल ने अपने दोहे में फागुन उतारते हुए कहा-
होंठों पर टेसू खिले, महुआ महके नैन/ धारा देह कामायनी, है फागुन की देन //
शशी मिश्रा पूजा ने अपने गज़ल के शेर में कहा-
तेरी यादों में आँखें सजल हो गईं .चंद आहें उभर कर गज़ल हो गईं
हमने चाहा कि पत्थर के हो जाएँ हम.भावनाएं मगर क्यों तरल हो गईं
          सञ्चालन कर रहे रिषभ समैया जलज ने रचना पढते हुए कहा-
जो-जो किये गुनाह उनका डर  लिए हुए.थर्रा रहे हैं हाथ भी खंज़र लिए हुए.
           वरिष्ठ कवि श्री निर्मल चंद निर्मल ने कविता पढ़ी-
शब्दों का अपव्यय बहुत हो चुका/सोचता हूँ कम बोलूँ/और एक दिन चुप हो जाऊं/वो चुप्पीसुनी जा सके वर्षों-वर्षों तक.
            गोष्ठी की अध्यक्षता कर रहे श्री जगदीश श्रीवास्तव जी ने मिनीगीत, पढ़ने के बाद गज़ल के शेर पढते हुए कहा-
ये सुबह किसे देंगे, ये शाम किसे देंगे.हम अपनी तबाही का इलज़ाम किसे देंगे
अश्कों ने मिटाए हैं,यादों के हंसी लम्हे, जो दिल पे लिखा तुमने वो नाम किसे देंगे. 
          साहित्यकारों का उत्साहवर्धन करने हेतु सुधि श्रोताओं में श्रीमान सेठ मोतीलाल जी जैन’’दाऊ, सुभाष दिवाकर एडव्होकेट , विनोद अनुरागी उपस्थित थे. आभार संस्था की सचिव श्रीमती निरंजना जैन ने व्यक्त किया.
          गोष्ठी के अंत में वरिष्ठ साहित्यकार, समालोचक ,प्रगति लेखक संघ के राष्ट्रीय महासचिव स्व. श्री  कमला प्रसाद एवं हिंदी-उर्दू मजलिस के संयुक्त सचिव श्री राजेश  केशरवानी की पूज्य माता स्व.श्रीमती सुमत रानी को दो मिनिट मौन रह कर श्रद्धांजलि दी गई.                                                                                       

Sunday, February 27, 2011

तबादला -निरंजना जैन





कहानी 
तबादला
                            निरंजना जैन  
      अपने तबादले की सूचना मिलते ही विद्युत मंडल का चपरासी बद्री प्रसाद जड़ सा हो गया | दफ्तर के इन्चार्ज खन्ना साहब के आते ही वह निढाल सा उनके केबिन में पहुँच कर अपना सर झुका कर खड़ा हो गया | उसकी हालत देख कर खन्ना साहब बोले “क्या बात है बद्री ? क्या बुखार-उखार आ गया है तुम्हें ?”
      बद्री दींन-हीन स्वर में बोला “नईं साब ! सुना है मेरा तबादला हो गया है |”
      अब सरकारी नौकरी में तो तबादले लगे ही रहते हैं | ” खन्ना साहब ने निस्पृह भाव से जवाब दिया |
      “साब ! ये बात तो मैं जानता हूँ | पर इस  समय मैं तबादले पर जाने की हालत मैं नहीं हूँ |”फिर एक लंबी सी साँस खींचकर वह  पुनः गिड़गिड़ाया – “आप कुछ भी करिये साब ! मेरा तबादला रुकवा दीजिए |”
      “सरकारी नौकरी में रहोगे तो तबादले होंगे ही | तबादलों से इतना घबराते हो तो नौकरी क्यों की ? कोई और काम-धंधा करते |” खन्ना साहब ने रूखे स्वर में जवाब दिया |
      “साब ! मैं तबाद्लों से नईं डरता | पर अब मैं कहीं और जाने की हालत में नहीं हूँ | अठारा साल  हो गए मुझे नौकरी करते | तब से अब तक पांच जगा तबादला हो चुका है | पर मैंने कभी हील-हुज्जत नहीं की | अठारा साल पेले जब साढ़े तीन सौ रुपे की नौकरी मिली तो मुझे लगा मेरा मैट्रिक पढ़ना सफल हो गया | नौकरी मिली थी तो मैं भोत खुश था | वैसे तो गाँव में हमारी थोड़ी सी जिमीन भी रही | पर मेरा  मन उस टेम नौकरी करना चाहता था | अम्मा बापू ने भी जोर नईं डाला खेती करने के लिए | क्योंकि उतना काम तो वह दोनों ही सम्हाल लेते थे | फिर मेरा छोटा भाई भी था उनके सहारे के लिए | नौकरी मिलते ही गाँव में मेरी और अम्माँ- बापू सबकी इज्जत बढ़ गईं | फिर मेरा ब्याह भी हो गया इस नौकरी में हम मियां – बीबी जहाँ भी रहे , हमें कोई अड़चन नहीं हुई | क्योंकि अनाज अम्माँ – बापू भिजवा देते और बाकी गुजर के लिए तनख्वाह थी ही | पर साब ! अब मेरा यहाँ से कहीं और जगा जाना मुश्किल है | दो बरस पेले बापू गुजर गए ते | इनके गम में अम्माँ भी भोत कमजोर हो गयीं हैं | खेती – बाड़ी का काम अब अकेले उनसे नईं समरता है | साल भर से छोटे को  भी बुखार आ रहा था | उसका इलाज करवाते रहे | पर बुखार ठीक नहीं हुआ | अभी कुछ महीने पहले पता चला की उसे टी० बी० है | सो उसकी दवा-दारू में भी ढील नई कर सकते हैं | गाँव यहाँ से बीसेक मील दूर है| छुट्टी के रोज वहाँ जाकर थोड़ा भोत काम निपटा आता हूँ | साब ! आप तो जानते हैं की पिछले बरस बरसात में रपटने से मेरे हाथ की हड्डी उतर गयी थी | वजन-अजन उठाने में भरी दिक्कत होती है | मेरी घरवाली को लकवा मार गया | तब से मैं भोत परेसान हूँ | वैद , हकीम डाकधर सबको जंचवाया , पर किसी के इलाज से कोई फरक नईं पड़ा | उसकी देखरेख , मालिस , दवा-दारू करना पड़ती ,सो अलग बात | ऊपर से रोटी – पानी , झाड़ू , बासन ,कपड़ा धोने का बोझा भी सर पर आ गया है | डूटी तो करनी पड़ेगी साब ! नईं तो खायेंगे क्या ? अधमरा तो मैं पेले से था , अब इस तबादले ने तो मेरी जान ही निकल दी है | अपाहिज घर वाली , कमजोर बूढ़ी अम्माँ , बीमार भाई और अपने पुरखों की हाथ भर जमीन , इन सब को बेसहारा छोड़कर कैसे जाऊं साब ?” कहते हुए रो पड़ा बद्री |
      फिर नाक सुडकते हुए बोला – “अठारा बरस तो गुजर ही गए हैं इस नौकरी में किसी तरह दो बरस और कट जाएँ तो पूर्व – सेवा मुक्ति लेके अपने घर चला जाऊँगा | फिर भईं पर  रहूँगा | बस किसी तरह  दो बरस और कटवा दीजिए साब ! मैं जिनगी भर आपका अहसान मानूँगा | “
      बद्री के दुखद हालातों से पसीज कर खन्ना साहब ने उसे ढाढस बंधाया -  “देखो बद्री ! मैं मानता हूँ की तुम बहुत तकलीफ में हो | पर तुम्हारा तबादला रोकना मेरे हाथ में नहीं है | हाँ ! मैं इतना अवश्य कर सकता हूँ की तुम्हारी प्रोब्लम हेडक्वाटर रिफर कर दूँगा | अगर वहाँ से आदेश आया तो ही तुम्हारा तबादला रुकेगा | पर ... कम से कम  दो – चार दिन तो लग ही जायेंगे | तुम ऐसा करो , चार दिन बाद आकर मुझसे मिलो |ठीक है ? ”
            एक हाथ से खन्ना साहब के पैर छू और दूसरे हाथ से अपनी आँखों में भर आये आँसू को पोंछ कर , बद्री ने तसल्ली से सर हिलाया और – “अच्छा साब ! ”कह कर चला गया |
      चौथे दिन खन्ना साहब के आने के एक घंटे पूर्व ही बद्री उनके केबिन के चक्कर काटने लगा | उनके आते ही उन्हें सलाम करके विनीत स्वर में बोला – “बात हो गई साब ? ”
हाँ ! बात तो मैंने कर ली है पर उनका कहना है की तुम्हारे स्थान पर आने वाले की भी तुम्हारी तरह कुछ परेशानियां हैं | उसने स्वयं ही तबादले पर यहाँ आने के लिए आवेदन दिया था | इस सप्ताह के अंत तक तुम दोनों को  अपनी-अपनी ड्यूटी ज्वाइन करना है | अब तो बस एक ही रास्ता बचा है की यहाँ आने वाले प्यून नंदू  को अपनी सारी परेशानी तुम स्वयं जाकर या पत्र द्वारा बतला दो | यदि वह मान गया तो ही तुम्हारा तबादला रुकना संभव है | वर्ना तुम्हें जाना ही पड़ेगा| उसका पता मैं दे देता हूँ |
      बद्री केबिन की दीवार से सर टिका कर वहीं बैठ गया | फिर बोला – “अपनी बीमार घरवाली को छोड़ कर वहाँ तक जाना तो मुश्किल है | मुझे तो चक्कर से आ रय हैं | चिट्ठी आप अपने हिसाब से लिख दीजिए साब ! ” उसने चिरौरी की |
      खन्ना साहब के लिखे  पत्र को दफ्तर के बाहर लगे डॉक के डिब्बे में छोड़  , बद्री लडखडाते कदमों से घर पहुँचा और बीमार पत्नी के पलंग के पास पड़ी टीन की  इकलौती कुर्सी पर सर पकड़ कर धम्म से बैठ गया | लकवा ग्रस्त चम्पा ने पति की जब यह हालत देखी तो बहुत कोशिश के बाद , इशारा करते हुए काँपती जुबान से लड़खड़ाती आवाज़ में बोली – “क ..क ..क्या हो... गया है तुम्हें ? ”
      चम्पा के इशारे के लिए फैले हाथ को तसल्ली देने वाले अंदाज़ में हौले से दबा कर बद्री बोला –“कुछ नईं , बस जरा ताप सा लग रहा है | सर भी भन्ना रहा है |”
      सुनकर लाचार चम्पा की आँखों में चिन्ता के भाव बनने लगे | उसके मुँह से मुश्किल से गुन्गवाती आवाज़ निकली –“द...द...द...दवाई ले लो | ”
      “तुम मेरी चिन्ता मत करो | ले लूँगा | लो... पानी पियो | ”कहकर बद्री ने चम्मच से चम्पा के मुँह में पानी डाला और पुट्ठे के डिब्बे में रखी दवाइयों के ढेर से एक गोली निकली पानी के साथ गटक ली |
      रात हुई तो जैसे-तैसे थोड़ी सी खिचड़ी पका कर चम्पा को खिलाई , फिर उसे दवा देकर सुला दिया | पर खुद से चिन्ता के मारे एक कौर न गुटका गया | पूरी रात छत घूरते सोचता रहा ,यदि नंदू न माना तो... | एक तो चिन्ता ऊपर से रतजगा | एक ही रात में निचुड सा गया बद्री | सुबह उठकर एक बेजान यंत्र की तरह उसने अपने तथा चम्पा के दैनिक कर्म निपटाए |उसे खिलाया-पिलाया और आप मुँह जुठारे बिना ही ज़मीन पर पड़े बिस्तर पर फिर मुर्दे सा पड़ गया|
      जैसे-तैसे एक दिन गुज़रा | दूसरा दिन भी पहाड़ सा कटा | तीसरे दिनभी उसकी भूख पर चिन्ता हावी रही | उसकी आँखें गड्ढे में घुस गईं | गाल पाचक कर हड्डियां उभर आईं और गेंहूँआ रँग स्याह पड़ गया | चिट्ठी छोड़े आज चौथा दिन था | अभी दो दिन बाकी हैं | इसी उम्मीद ने उसके कृशकाय  कमजोर शरीर में चम्पा को खाना- पानी देने लायक ताकत शेष रखी थी | राम – राम करके छठवाँ दिन भी आ गया | पूरे दिन वह बुझी – बुझी आँखों से दरवाजे पर टकटकी लगाये ज़वाब लेने वाले की राह निहारते हुए सोचने लगा –“कल डूटी पर जाना है | इस जड्ड शरीर के साथ अब दफ्तर तो दूर , दरवाज़े तक घिसटना भी भारी लग रहा है |अब  मैं क्या करूँ ?”
      सोचते – सोचते बद्री बेसुध हो गया |
उस दिन बीमार चम्पा को दवा तो दूर खाना – पीना तक नहीं मिला | वह निरीह , लाचार , अपने पलंग के पास पड़े पति की हालत देख – देख कर हलाकान हुई जा रही थी | लेकिन मजबूर थी | क्या करती ? उसका हलक भी प्यास के मारे सूख कर चिपक गया था | लेकिन पति की धौंकनी की तरह चलती साँस को देख कर वह सब भूल गई | अचानक ही बद्री को खाँसी का बहुत तेज दौरा उठा | वह अधबैठा होकर दोनों हाथों से अपनी छाती मसलते हुए छटपटाने लगा | उसकी आँखें बाहर को उभर आईं | पति की यह हालत देख चम्पा से न रहा गया | उसने पूरी ताक़त लगाकर बिस्तर से उठने की कोशिश की | ताकि उसे दो घूँट पानी पिला सके | तभी बद्री के मुँह से फेन निकलने लगा , और वह फिर से बिस्तर पर  गिर गया | चम्पा भी उठाने की कोशिश में पलंग से लुढक कर बद्री के पैरों के पास जा गिरी और फटी – फटी आँखों से पति को देखने लगी | दो  मिनिट में ही उसकी आँखों की पुतलियाँ स्थिर हो गईं |
      घटना के दो घंटे बाद दफ्तर का कर्मचारी छोटेलाल बद्री को यह खुशखबरी देने आया कि उसका तबादला रुक गया है | पर घर के लटके हुए दरवाजे को खोलते ही सामने का दृश्य देखकर उसकी रूह फ़ना हो गई | उसने फ़ौरन ही दफ्तर पहुँचकर खन्ना साहब की टेबिल पर बद्री का स्थगन आदेश वापस रखते हुए कहा – “साहब ! बद्री को अब कागज के इस टुकड़े की कोई ज़रूरत नहीं है | वह इस दुनिया से सेवा मुक्त होकर , अपनी घरवाली सहित दूसरी दुनिया के तबादले पर जा चुका है |”
                        ............................      

पोस्ट आफिस के पास बड़ा बाज़ार , सागर

Kavitayen


 ग्रहण 
क्षण /प्रतिक्षण
ग्रसता जा रहा है
मानवता के / जगमगाते सूर्य को
कलुषताओं का ग्रहण
इस
ग्रहण से गहनतर होते अंधकार  में
छटपटा रही है इंसानियत
क्योकि
विकरित  होने लगीं हैं
उस सूर्य से
भ्रष्टाचार / अनेतिकता /अराजकता की
विषैली किरणें
भौतिकता की / चौधियातीं झांईं
अंधा कर रहीं हैं /आँखों को
जिन्हें बंद किये
मैं
इंतज़ार कर रही हूँ
डायमंड रिंग का
जिसके बनते ही / पुन: जगमगायेगा
मानवता का सूर्य
पर
शेष है अभी
खग्रास  
निरंजना जैन

नागफनी 
नागफनी के गमले में
पानी डालते वक्त
चुभे
तीक्ष्ण कंटकों की पीड़ा से
मैं तिलमिलाई
इन कंटकों का / यहाँ क्या काम
सोच
पूरी की पूरी नागफनी
तेज चाकू से काट गिराई
उसके कटते ही /क्षुब्द होकर
गमले ने प्रश्न उठाया
तुम ने / मुझमें ऊगी
इस अचल / मूक नागफनी का
बड़ी आसानी से / कर दिया सफाया
पर
इंसानी दिलों के / गमले में ऊगी
स्वार्थ की / कंटीली नागफनी को
कैसे मिटाओगी ?
और
इस बे जुबान की
कटे हिस्सों से टपकते
सफ़ेद रक्त की बूंदों का हिसाब
किस तरह चुकाओगी    
  निरंजना जैन .
बहुत याद
 आती है  
माँ
तुम्हारी बहुत याद आती है
जब दोपहर को
सूरज के सामने
आ जाता है
कोई
बादल का टुकड़ा
माँ
तुम्हारी बहुत याद आती है
जब
गर्मी के मौसम के बाद
पहली बारिश के साथ
माटी की
सोंधी महक लिए
ठंडी हवा
तपते बदन को सहलाती है
 माँ
तुम्हारी बहुत याद आती है
जब देखता हूँ
चूजे के मुँह में
दाना डालते हुए
किसी चिड़िया को
तब
बहुत याद आती है तुम्हारी ...
माँ
तुम्हारी बहुत याद आती है
जब रात की तन्हाई में
कोई सदा बहार गीत
देने लगता है थपकियाँ
मुंदने लगती हैं आँखें
     डॉ०अनिल कुमार जैन
(मधुरिमा दैनिक भास्कर 
 ०६ मई २००९ )