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Tuesday, July 19, 2011
वृन्दावन राय 'सरल'
क्यों रहें निर्भर किसी ज़रदार पर
सर झुकाएं क्यों किसी के द्वार पर
चाँद पर अब घर बनाए आदमी
फूल सहरा में खिलाये आदमी
कर यकीं अपने हुनर की धार पर
सर झुकाएं...........
मंज़िलों के पा सकें न वो निशाँ
जो चलें बैसाखियाँ लेकर यहाँ
मत बना छत रेत की दीवार पर
सर झुकाएं......
खो गई इंसान की इंसानियत
हो गई बारूद जैसी ज़हनियत
जी रही दुनिया खड़ी तलवार पर
सर झुकाएं...........
कौन किसका है सगा इस दौर में
दे रहे अपने दग़ा इस दौर में
धूल छल की चढ़ गई व्यवहार पर
सर झुकाएं......
(परिधि-1)
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