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Sunday, February 27, 2011

Chuninda Shayri




                                 
चुनिन्दा  शायरी
जिन्दगी की धूप में , इस सर पे इक चादर तो है
लाख दीवारें शिकस्ता हों , पर अपना घर तो है
घर से निकली तो खबर बन जायेगी आपस की बात
जो भी किस्सा है अभी तक सहन के भीतर तो है
                                               -परवीन शाकिर   
छोड़ लिटरेचर को , अपनी हिस्ट्री को  भूल जा
शेख-ओ-मस्जिद से ताल्लुक तर्क.कर स्कूल जा
चार दिन की ज़िन्दगी है , कोफ़्त से क्या फायदा
खा डबलरोटी क्लर्की कर खुशी से फूल जा
                                              -अकबर इलाहाबादी              
गुलशन परस्त हूँ , मुझे गुल ही नहीं अज़ीज़
काँटों से भी निबाह किये जा रहा हूँ मैं
यूँ ज़िन्दगी गुज़ार रहा हूँ तेरे बगैर
जैसे कोई गुनाह किये जा रहा हूँ मैं
                               -जिगर मुरादाबादी  
इस गुलशने हस्ती में अजब दीद है लेकिन
जब चश्म खुली गुल की , तो मौसम है खिज़ां का
                                  -मिर्ज़ा मुहम्मद रफीअ सौदा
हम तुझसे किस हवस की फ़लक जुस्तजू करें
दिल ही नहीं रहा है , जो कुछ आरज़ू करें
तरदामनी पे शेख हमारी न जाइयो
दामन निचोड़ दें तो , फ़रिश्ते वज़ू करें
                                        ख्वाजा मीर दर्द
अगर ये जानते चुन-चुन के हमको तोड़ेंगे
तो गुल कभी न तमन्नाये रंगो  बू करते
अब तो घबरा के ये कहते हैं की मर जायेंगे
चैन मर के भी न पाया तो किधर जायेंगे
                                  शेख मुम्मद इब्राहीम जौक.
मुसीबत और लंबी ज़िन्दगानी
बुज़ुर्गों की दुआ ने मार डाला
                   मुजतर खैराबादी
कहानी दुखों की कही जाये ना
कहूँ तो किसी से सुनी जाये ना
                            डॉ० अनिल कुमार जैन                         
पैदा हुए तो हाथ जिगर पर धरे हुए
क्या जाने हम हैं आप पर कब से मरे हुए
                                  बेनजीर शाह वारसी
दिल टूटने से थोड़ी सी तकलीफ़ तो हुयी
लेकिन तमाम उम्र को आराम हो गया
                                       सफ़ी लखनवी       
सुना फूल से उनको होती चुभन है
अनिल नाज़ उनके उठाओगे कैसे
                                 डॉ० अनिल कुमार जैन  
और  चल फिर ले ज़रा तन-तन के ए बाँके जवां
चार दिन के बाद फिर टेढ़ी कमर हो जायेगी
                                                   अज्ञात  
हम भी कुछ खुश नहीं वफ़ा करके
तुमने अच्छा किया निबाह न की
                                       मोमिन  
थी आखरी बहार जवानी कि उसके बाद ,
जैसे खिज़ां दरख़्त पे आकर ठहर गयी
बस्ती में दिल की झाँक के देखा तो डर गया
हर सू लगी थी आग जहाँ तक नज़र गयी
                                डॉ० अनिल कुमार जैन                                                             

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