तमन्नाओं की शिद्दत कब नहीं थी
हमें तुमसे मुहब्बत कब नहीं थी
हसीं फूलों की रंगत कब नहीं थी
मेरी दुनिया में शोहरत कब नहीं थी
सदा अन्जान सैय्यारों से देती
फरिश्तों सी वो सूरत कब नहीं थी
अभी आये हो तुम गुलशन में, लेकिन
बहारों की ज़रुरत कब नहीं थी
जुबां पर दिल से आ न पाई लेकिन
तुम्हें पाने की हसरत कब नहीं थी
वफ़ा की रौशनी से जगमगाती
मुहब्बत की इमारत कब नहीं थी
गरीबों की सिसकती बस्तियों में
अमीरों की हुकूमत कब नहीं थी
करे परवाह कब तक कोई मजनू
ज़माने को शिकायत कब नहीं थी
नगर से मौत के दावत तो आती
मेरे क़दमों में ताक़त कब नहीं थी
प्रमोद भट्ट 'नीलांचल'
..(परिधि-5)
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