हिन्दी-उर्दू मजलिस का मुखपत्र

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Sunday, February 27, 2011

Kavitayen


 ग्रहण 
क्षण /प्रतिक्षण
ग्रसता जा रहा है
मानवता के / जगमगाते सूर्य को
कलुषताओं का ग्रहण
इस
ग्रहण से गहनतर होते अंधकार  में
छटपटा रही है इंसानियत
क्योकि
विकरित  होने लगीं हैं
उस सूर्य से
भ्रष्टाचार / अनेतिकता /अराजकता की
विषैली किरणें
भौतिकता की / चौधियातीं झांईं
अंधा कर रहीं हैं /आँखों को
जिन्हें बंद किये
मैं
इंतज़ार कर रही हूँ
डायमंड रिंग का
जिसके बनते ही / पुन: जगमगायेगा
मानवता का सूर्य
पर
शेष है अभी
खग्रास  
निरंजना जैन

नागफनी 
नागफनी के गमले में
पानी डालते वक्त
चुभे
तीक्ष्ण कंटकों की पीड़ा से
मैं तिलमिलाई
इन कंटकों का / यहाँ क्या काम
सोच
पूरी की पूरी नागफनी
तेज चाकू से काट गिराई
उसके कटते ही /क्षुब्द होकर
गमले ने प्रश्न उठाया
तुम ने / मुझमें ऊगी
इस अचल / मूक नागफनी का
बड़ी आसानी से / कर दिया सफाया
पर
इंसानी दिलों के / गमले में ऊगी
स्वार्थ की / कंटीली नागफनी को
कैसे मिटाओगी ?
और
इस बे जुबान की
कटे हिस्सों से टपकते
सफ़ेद रक्त की बूंदों का हिसाब
किस तरह चुकाओगी    
  निरंजना जैन .
बहुत याद
 आती है  
माँ
तुम्हारी बहुत याद आती है
जब दोपहर को
सूरज के सामने
आ जाता है
कोई
बादल का टुकड़ा
माँ
तुम्हारी बहुत याद आती है
जब
गर्मी के मौसम के बाद
पहली बारिश के साथ
माटी की
सोंधी महक लिए
ठंडी हवा
तपते बदन को सहलाती है
 माँ
तुम्हारी बहुत याद आती है
जब देखता हूँ
चूजे के मुँह में
दाना डालते हुए
किसी चिड़िया को
तब
बहुत याद आती है तुम्हारी ...
माँ
तुम्हारी बहुत याद आती है
जब रात की तन्हाई में
कोई सदा बहार गीत
देने लगता है थपकियाँ
मुंदने लगती हैं आँखें
     डॉ०अनिल कुमार जैन
(मधुरिमा दैनिक भास्कर 
 ०६ मई २००९ )

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